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Friday, 26 January 2018

क्या हम संविधानवाद से समझौता कर रहे हैं?-रविश कुमार की कलम से

रविश सर की फ़ाइल् फोटो
संविधान की प्रस्तावना पर एक नज़र 
हम भारत के लोग, भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए, तथा उसके समस्त नागरिकों को: सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त करने के लिए, तथा उन सब में व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखंडता सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढ़ाने के लिए दृढ़ संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख 26 नवंबर 1949 ई (मिति मार्गशीर्ष शुक्ला सप्तमी, संवत दो हज़ार विक्रमी) को एतदद्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं.

आखिरी बार आपने भारत के संविधान की प्रस्तावना कब पढ़ी थी, सिविल सेवा की परीक्षा देते समय पढ़ी थी या फिर अपनी नागरिकता को समझने के लिए भी पढ़ते रहे हैं. 26 जनवरी का दिन है. संविधान लागू होने का दिन है. इस वक्त अमरीका का ही संविधान है जो 200 साल का सफर तय कर चुका है. अमरीका ने ही अपने संविधान में प्रस्तावना जोड़ी मगर भारत के संविधान की प्रस्तावना ने दुनिया भर के राजनीतिक और संवैधानिक विशेषज्ञों को आकर्षित किया था. भारत के संविधान की प्रस्तावना में 1976 में एक संशोधन हुआ और समाजवादी, सेकुलर के साथ एकता और अखंडता जोड़ा गया. आपातकाल के दौरान यह संशोधन हुआ था. उसके बाद जो सरकार आई उसने आपातकाल के दौरान किए गए कई संशोधनों को 43वें और 44वें संशोधन के ज़रिए हटाया मगर उसने भी सेकुलर, समाजवादी, अखंडता और एकता को नहीं हटाया. इसका मतलब यह है कि उस वक्त की सभी दलों ने इन बातों को स्वीकार किया होगा. संविधान की प्रस्वाना के कुछ शब्द ऐसे हैं जिनकी हम चर्चा नहीं करते हैं.
- समानता
- स्वतंत्रता
- बंधुत्व

समानता का आलम यह है कि भारत की कुल संपत्ति का 73 प्रतिशत हिस्सा एक फीसदी लोगों के पास है और 67 करोड़ ग़रीबों के पास जितना पैसा है उसके बराबर इन एक फीसदी के पास है. आर्थिक आंकड़े बताते हैं कि हम समानता के पैमाने पर खरे उतरे हैं. पर क्या समानता आर्थिक ही होती है, आप कह सकते हैं कि संविधान के सामने तो सब समान हैं लेकिन क्या ग़रीब को भी उसी तरह न्याय मिल जाता है जिस तरह अमीर को मिल जाता है. मुल्क के संसाधनों पर अधिकार की समानता क्या गरीब की भी वही है जो अमीर की या ताकतवर की है. बंधुत्व कहां से आया, समानता और स्वतंत्रता कहां से आया. फ्रांस की क्रांति के ये शब्द भारत के संविधान की प्रस्तावना में क्यों आए. 1956 में डॉक्टर एस राधाकृष्णन ने लिखा था कि 'जब भारत यह कहता है कि वह सेकुलर राज्य है तो इसका मतलब यह नहीं कि वे जीवन में धर्म की प्रासंगिकता को ठुकरा रहा है. इसका मतलब यह भी नहीं कि धर्मनिरपेक्षता अपने आप में कोई सकारात्मक धर्म है या राज्य ने कोई दैविक अधिकार हासिल कर लिया है. हम यह मानते हैं कि किसी भी धर्म को ज़्यादा महत्व नहीं दिया जाएगा. धार्मिक तटस्थता का राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय जीवन में बहुत बड़ी भूमिका है.'

2014 के बाद ट्वीटर की भाषा में एक शब्द आया सिकुलर. सेकुलर कहलाने वालों के लिए यह एक किस्म की राजनीतिक गाली थी. जो लोग राज्य के सामने धर्मों की बराबरी चाहते हैं और चाहते हैं कि संविधान की व्यवस्था धर्म से ऊपर रहे उन्हें सिकुलर कहा गया. सिकुलर कहने वालों को पता ही नहीं चला या जानबूझ कर अनजान बने रहे कि वे भारत के संविधान का मज़ाक उड़ा रहे हैं. यह इसलिए भी होता है कि हम संविधान या उसकी प्रस्तावना के बारे में कम जानते हैं. संविधान के आर्टिकल 5 से हमें नागरिकता मिली है. हम भारत के नागरिक हैं. इस नागरिकता के कुछ दायित्व हैं, कुछ अधिकार हैं. संविधान को लेकर अरस्तु के कुछ विचार हैं. 'राज्य में सरकार हर जगह संप्रभु है और संविधान ही सरकार है.'

अरस्तु प्राचीन ग्रीस का विचारक था जिसका काल 384 ईसा पूर्व से 322 ईसा पूर्व माना जाता है. तब अरस्तु ने संविधान की अवधारणा की बात की थी. शिबानी किंकर चौबे की एक किताब है दि मेकिंग एंड वर्किंग ऑफ दि इंडियन कांस्टिट्यूशन. नेशनल बुक ट्रस्ट से अंग्रेज़ी में छपी है. वहीं से हमने ये लाइन आपके लिए टीप ली है. उस दौर में अरस्तु संविधान की अवधारणा पर लिख रहा था कि 'संविधान राज्य में कई संस्थाओं का संगठन है, जो तय करता है कि शासन करने वाली संस्थाएं क्या होंगी और हर समुदाय की आखिरी सीमा क्या है. लेकिन कानून सिर्फ संविधान के सिद्धांतों तक सीमित नहीं रहता है, वे सभी नियम होते हैं जिसे मजिस्ट्रेट को राज्य में लागू करना चाहिए और नियम तोड़ने वालों के ख़िलाफ़ कार्रवाई करनी चाहिए.'

संविधान पर हमारी यह दूसरी सीरीज़ है. हमारी कोशिश है कि संविधान की बातें अच्छी हिन्दी में और वो भी जानकारी पर अधिकार के साथ आप तक पहुंचे खासकर प्रतियोगी परीक्षा में निबंध लिखने वाले छात्रों के बीच. संविधान की किताब पलटिए तो भाषा के हिसाब से वह गणित की किताब लगने लगती है. क्या इस वजह से भी इसे कुछ ही लोग समझने की योग्यता रखते हैं और जो समझते हैं वो इस तरह बर्ताव करते हैं जैसे संस्कृत के आचार्य हों. मैं बड़े वकीलों की बात कर रहा हूं. जिस तरह संस्कृत आम जनता से दूर हो गई क्या उसी तरह संविधान की भाषा लोगों को उससे दूर करती है, अलगाव को बढ़ा देती है. हम इस भय को दूर करने का प्रयास करेंगे.

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