लेनिन की मूर्ति आपने गिरा दी, लेकिन कृपया पेरियार को छूने की कोशिश न करें....
यह वैधानिक नहीं, शुद्ध राजनीतिक चेतावनी है. आज की तारीख़ में अम्बेडकर, ज्योतिबा फुले और पेरियार महज़ मूर्तियां नहीं, ऐसे खंभे हैं, जिनमें बिजली दौड़ रही है.
पिछले कुछ दशकों में जो नई राजनीतिक दलित अस्मिता उभरी है, वह पेरियार के स्वाभिमान आंदोलन से ऊर्जा लेती रही है. वह अम्बेडकर और ज्योतिबा फुले के अभियानों से ताकत ग्रहण करती रही है. लेनिन को विदेशी बताकर आप निकल जाएंगे, मार्क्सवाद का मज़ाक उड़ाकर भी आप बचे रह जाएंगे, लेकिन सदियों से जख़्मी दलित अस्मिता के साथ छेड़छाड़ आपको भारी पड़ेगी.
सिर्फ दो साल पहले रोहित वेमुला की आत्महत्या आपकी वैचारिकी और आपके सांगठनिक आधार के लिए जो संकट पैदा कर चुकी है, उसे आप कुछ और बढ़ाएंगे. ऊना से सहारनपुर तक पिटने वाली दलित अस्मिता तब ज़्यादा बिलबिलाएगी, जब आप पेरियार को हाथ लगाएंगे.
दलित शब्द ज्योतिराव फुले का ही दिया हुआ माना जाता है. पहली बार मराठी में उन्होंने इसका इस्तेमाल किया. वह 1827 में पैदा हुए थे. सत्यशोधक मंडल बनाया. अस्पृश्यता के ख़िलाफ़ लड़ाई लड़ी. महिलाओं को बराबरी देने की बात की. उन्होंने आर्यों की श्रेष्ठता की पहले से चली आ रही धारणा को चुनौती दी - कहा कि वे बर्बर थे, जिन्होंने देसी लोगों पर अत्याचार किए. राम की कहानी को वह इसी आर्य आक्रमण से जोड़कर देखते हैं.
ज्योतिबा फुले के 50 बरस बाद पेरियार पैदा होते हैं. पेरियार के भीतर भी आर्य परंपरा और हिन्दू सड़ांध को लेकर वही गुस्सा और पीड़ा है. वह बाकायदा सच्ची रामायण लिखते हैं और राम के नायकत्व को तीखी चुनौती देते हैं. ब्राह्मणवाद के पाखंड के विरुद्ध उनका स्वाभिमान आंदोलन चलता है. यह अनायास नहीं है कि वह भी स्त्री मुक्ति की बात करते हैं.
पेरियार के क़रीब 12 साल बाद अम्बेडकर पैदा होते हैं. अम्बेडकर शायद दलित मेधा के सबसे बौद्धिक और प्रखर प्रतिनिधि हैं. '30 के दशक में जाति-तोड़ो मंडल उनको अपने कार्यक्रम की अध्यक्षता के लिए आमंत्रित करता है. इसके लिए अम्बेडकर 'जाति का उन्मूलन' नाम से जो पर्चा लिखते हैं, उसे देखकर जाति-तोड़क मंडल के हाथ-पांव फूल जाते हैं. न्योता वापस ले लिया जाता है, क्योंकि अम्बेडकर हिन्दुत्व की श्रेष्ठता को इतनी तरह से प्रश्नांकित करते हैं, हिदू शब्द पर ही इतने तीखे और तार्किक सवाल उठाते हैं कि पारंपरिक संवेदना उसे झेल नहीं सकती.
बहरहाल, असली सवाल यह है कि अपने समाज के तीन बड़े सुधारक आख़िर उस धर्म से और उसके धार्मिक विश्वासों से इतनी नफ़रत क्यों करते हैं कि उसके हाशिये पर भी खड़े रहने को तैयार नहीं होते, जिसमें वे पैदा हुए...? इसलिए कि उनको इस समाज ने अस्पृश्यता और उत्पीड़न के ऐसे अनुभव दिए कि उनको वहां रहना-जीना गवारा नहीं हुआ.
अब एक सदी बाद जो पौधा इन चिंतकों और समाज-सुधारकों ने बोया था, वह लहलहाने लगा है. दलित राजनीति अपने समाज से अपना दाय मांग रही है. फिलहाल राजनीति उसके तुष्टीकरण में लगी है. इस दौर में गांधी को छूना आसान है, अम्बेडकर और पेरियार को नहीं. इस दौर में विवेकानंद पर सवाल उठाए जा सकते हैं, ज्योतिबा फुले पर नहीं. यह कोई आदर्श स्थिति नहीं है. अगर ज़रूरत हो, तो सब पर सवाल उठने चाहिए, सबको जवाबदेह होना चाहिए. लेकिन दरअसल पहले जो लोग दलितों की छाया से बचते थे, वही लोग अब उनके विचारों की छाया से बच रहे हैं. वे अम्बेडकर और पेरियार की मूर्तियां लगाकर दलितों के ख़ैरख्वाह बन रहे हैं. कोई और दौर होता, तो शायद वे इन तमाम लोगों और विचारकों को उनके हिन्दू विरोधी होने का दंड देते, लेकिन अभी हिन्दूवाद की राजनीति का तकाज़ा कुछ ऐसा है कि यह करना उनके लिए ख़तरे से ख़ाली नहीं.
यही वजह है कि त्रिपुरा में लेनिन की मूर्ति गिराए जाने के बाद जिस सरकार के नुमाइंदे उसे जायज़ ठहरा रहे थे, तमिलनाडु में पेरियार की मूर्ति को चोट पहुंचाए जाने के बाद उसी सरकार के मुखिया सतर्क हो गए. BJP अध्यक्ष अमित शाह को सख़्त चेतावनी जारी करनी पड़ी. ज़ाहिर है, मौजूदा दौर में पेरियार को छूने की हिम्मत BJP नहीं कर सकती. करेगी तो जल जाएगी. यह बात कार्यकर्ता भले न समझें, उसके नेता समझ रहे हैं.
ये लेख प्रियदर्शन NDTV इंडिया में सीनियर एडिटर हैं...उन्ही के द्वारा लिखी गई है
डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार लेखक के निजी विचार हैं इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं.
सभार NDTV.IN
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